छत्तीसगढ़ में जनजातीय विद्रोह
छत्तीसगढ़ के इतिहास में कई आदिवासी और जनजाति विद्रोह हुआ। इसमें बस्तर के आदिवासी ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। छत्तीसगढ़ के जनजाति आंदोलन अधिकतर बस्तर में हुआ है या फिर बस्तर के आसपास क्षेत्रों में हुआ है। इन विद्रोह का मूल कारण आदिवासियों के परम्पराओं और संस्कृति में मराठा शासन और अंग्रेजो ने हस्क्षेप किया। इसकी हस्तक्षेप के विरोध में ये विद्रोह हुआ। जिन में से प्रमुख विद्रोह इस प्रकार है –
छत्तीसगढ़ में हुए प्रमुख जनजाति विद्रोह इस प्रकार है –
- हल्बा विद्रोह (Halba Vidroh)
- परलकोट का विद्रोह (Paralkot Vidroh)
- तारापुर का विद्रोह (Tarapur Vidroh)
- मेरिया विद्रोह (Meriya Vidroh)
- लिंगागिरी विद्रोह (LingaGiri Vidroh)
- कोई विद्रोह ( Koi Vidroh)
- मुरिया विद्रोह (Muriya Vidroh)
- भूमकाल विद्रोह (Bhumkal Vidroh)
- हनुमान सिंह का विद्रोह (Hanuman Singh Vidroh)
- सुरेंद्रसाय का विद्रोह (Surendrasay Vidroh)
हल्बा विद्रोह (Halba Vidroh)
सन 1774 से 1779 के बिच
बस्तर रियासत की राजधानी जगदलपुर थी। डोंगर क्षेत्र बस्तर रियासत का एक महत्वपूर्ण भाग था। बस्तर रियासत के राजा डोंगर को उपराजधानी बनाकर अपने पुत्रो को डोंगर क्षेत्र का गवर्नर नियुक्त किया करते थे।
ऐसे ही बस्तर के राजा श्री दलपत सिंह ने अपने पुत्र अजमेर सिंह को डोंगर का गवर्नर बनाया। दलपत सिंह के बाद जब दरियादेव सन 1774 में बस्तर का राजा बना। दरियादेव ने डोंगर क्षेत्र की अपेक्षा की और अपना अधिकार का दावा करने लगा। दरियादेव ने डोंगर क्षेत्र पर हमला कर दिया। हल्बा विद्रोहियों ने दरियादेव की सेना पराजित कर दिया और जगदलपुर पर कब्जा कर लिया। दरियादेव भागकर जैपुर राज्य में आश्रय ले लिया।
राज्य को वापस पाने के लिए ब्रिटिश कंपनी, मराठा साम्राज्य, और जैपुर के राजा से अलग -अलग संधि कर ली और 20000 सैनिकों के साथ जगदलपुर पर आक्रमण किया और हल्बा विद्रोहियों को पराजित कर बस्तर रियासत पर अपना अधिकार पुन: प्राप्त कर लिया। इस युद्ध में अजमेर सिंह मारा गया। हल्बा विद्रोहियों की बेरहमी से हत्या कर दी गयी।
विद्रोह की समाप्ति के बाद बस्तर के राजा दरियादेव ने 6 अप्रैल 1778 को एक समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया जिसके अनुसार उनसे भोसलों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। जयपुर के राजा को सहायता के बदले पुरस्कार स्वरुप कोटपाड परगना देना पड़ा।
परलकोट का विद्रोह (Paralkot Vidroh)
परलकोट विद्रोह 1825 में हुआ था। उस समय यंहा के शासक महिपाल देव था। परलकोट के जमींदार गेंदसिंह के नेतृत्व में यह जनजातीय विद्रोह हुआ था। अंग्रेजो और मराठो के प्रति असंतोष ही इस विद्रोह का कारण बना था। प्रतिक चिन्ह के रूप में धारवाड़ वृक्ष के टहनियों का प्रयोग करते थे।
मेरिया विद्रोह (Meriya Vidroh)
मेरिया विद्रोह 1842 से 1863 के बिच हुआ। उस समय यंहा के शासक भूपाल देव था। इस विद्रोह का नेतृत्व हिड़मा मांझी ने की थी। इस विद्रोह का प्रमुख कारण था अंग्रेजो के द्वारा दंतेश्वरी मंदिर में नरबलि प्रथा को समाप्त करना। उस समय मेरिया लोगो का कहना था की अंग्रेज हमारी संस्कृति में हस्तक्षेप न करे।
तारापुर का विद्रोह (Tarapur Vidroh)
यह विद्रोह 1842 से 1854 के बिच में हुआ था। उस समय यंहा के शासक भूपाल देव था। तारापुर विद्रोह का नेतृत्व दलगंजन सिंह ने किया था। उस समय अंग्रेजो द्वारा तारापुर में कर बढ़ने की वजह से यह विद्रोह हुआ था। परिणाम दलगंजन सिंह के पक्ष में गया और अंग्रेजो ने कर नहीं बढ़ाया।
लिंगागिरी विद्रोह (LingaGiri Vidroh)
यह विद्रोह 1856 से 1857 के बिच में हुआ था। उस समय यंहा के शासक भैरम देव था। लिंगागिरी विद्रोह का नेतृत्व धुर्वाराव मदिया ने की थी। उस समय अंग्रेज लिंगागिरी क्षेत्र में अपना अधिकार जमाना चाहते थे। इसी विरुद्ध में लिंगागिरी विद्रोह हुआ था। परिणाम स्वरूप धुर्वाराव को फांसी दे दी गयी।
कोई विद्रोह ( Koi Vidroh)
यह विद्रोह 1859 में हुआ था। भैरम देव यंहा के शासक थे। इस विद्रोह के नेता नांगुल दोर्ला था। इस विद्रोह का प्रमुख कारण उस क्षेत्र में हो रहे साल वृक्षों की कटाई पर रोक लगाना था। यह पहला विद्रोह था जो सफल रहा और अंग्रेजो की हार हुई।
मुरिया विद्रोह (Muriya Vidroh)
यह विद्रोह 1876 में हुआ था। इस विद्रोह को बस्तर का स्वाधीनता संग्राम कहते है। उस समय के शासक भैरम देव था। इस विद्रोह का नेतृत्व झाड़ा सिरहा जो कि एक मुरिया आदिवासी थे, ने किया था। आम वृक्ष टहनियों को इन्होने अपना प्रतिक चिन्ह बनाया था। अंग्रेजो द्वारा की गयी असहनीय नीतियों के विरुद्ध यह विद्रोह हुआ था।
भूमकाल विद्रोह (Bhumkal Vidroh)
यह विद्रोह 1910 में हुआ था। उस समय के शासक रुद्रप्रताप देव थे। गुण्डाधुर इनके प्रमुख नेता थे। अंग्रेजो के द्वारा बस्तर क्षेत्र हुकूमत के विरुद्ध यह विद्रोह हुआ था। लालमिर्च और आम कि टहनिया इस विद्रोह का प्रतिक चिन्ह था। सोनू मांझी ने गुण्डाधुर से धोखेबाजी कि जिसके फलस्वरूप गुण्डाधुर पकड़ा गया। बाद में गुण्डाधुर अंग्रजो के चंगुल से भागने में सफल हुआ।
हनुमान सिंह का विद्रोह (Hanuman Singh Vidroh)
हनुमान सिंह बैसवारा के राजपूत थे और रायपुर बटालियन में मैगनीज लश्कर के पद थे। इसे छत्तीसगढ़ का मंगल पांडेय कहा जाता है। यह अंग्रेजो के दमनकारी नीतियों से परेशान थे। इन्होने अपने 17 साथियो के साथ मिलकर मेजर सिडवेयर की हत्या कर दी। 18 जनवरी 1858 को हनुमान सिंह और उसके सभी साथी गिरफ्तार कर लिए गए। पर हनुमान सिंह वंहा से भागने में कामयाब हो गए। हनुमान सिंह के साथियो को 22 जनवरी 1858 को फांसी दे दी गयी।
सुरेंद्रसाय का विद्रोह (Surendrasay Vidroh)
सुरेंद्र साय सम्बलपुर के जमींदार थे। इन्हे छत्तीसगढ़ स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम शहीद कहते है। इन्होने वीरनारायण सिंह के पुत्र के साथ मिलकर उत्तराधिकारी युद्ध किया था। यह अंग्रजो को सही नहीं लगा और हजरीबाग जेल में बंद कर दिया। 31 अक्टूबर 1857 को जेल से फरार हो गए। इनकी मृत्यु 1884 में हुआ।