
छत्तीसगढ़ के आधुनिक इतिहास में मराठा शासन काल कलचुरी वंश के बाद आता है कलचुरी शासकों को मराठा शासक का सेनापति भास्कर पंत ने पराजित किया था। भास्कर पंत छत्तीसगढ़ में 1741 को आक्रमण किया था। जिसमे उसने रतनपुर के कलचुरी नरेश रघुनाथ सिंह जो उम्रदराज होने के कारण उसने आत्मसमर्पण कर दिया। और मराठा शासन छत्तीसगढ़ में अपना अप्रत्यक्ष शासन प्रारम्भ किया।
छत्तीसगढ़ में मराठा शासनकाल
- अप्रत्यक्ष शासन – 1741 से 1758 तक
- प्रत्यक्ष शासन – 1758 से 1787 तक
- सूबा शासन – 1787 से 1811 तक
- सत्ता संघर्ष – 1811 से 818 तक
- ब्रिटिश कालीन मराठा शासन – 1818 से 1830 तक
- पुनः भोसला शासन – 1830 से 1854 तक
- अप्रत्यक्ष शासन -1741 से 1758 तक
अप्रत्यक्ष शासन – 1741 से 1758 तक
रघुनाथ सिंह
- 1741 में भोसला शासक के सेनापति भास्कर पंत ने रतनपुर में आक्रमण कर रघुनाथ सिंह को पराजित कर उसे ही अपने प्रतिनिधि के रूप में रघुनाथ सिंह को ही रखा।
मोहन सिंह
- रघुनाथ सिंह की मृत्यु के पश्चात 1745 में मोहन सिंह को प्रतिनिधि के रूप में रखा और उनकी मृत्यु 1758 में होने के बाद बिम्बा जी भोसला ने प्रत्यक्ष शासन प्रारम्भ किया।
छत्तीसगढ़ में मराठाओं का प्रत्यक्ष शासन – 1758 – से 1787 तक
बिम्बाजी राव भोसला
- बिम्बाजी राव भोसला का शासन काल 1758 से 1787 तक रहा
- रघु जी प्रथम के पुत्र बिम्बाजी राव भोसला को छत्तीसगढ़ पैतृक संपत्ति के रूप में प्राप्त हुआ।
- बिम्बाजी राव भोसला छत्तीसगढ़ के प्रथम मराठा शासक बना।
- रायपुर और रतनपुर का एकीकरण कर राजधानी रतनपुर को बनाया।
- इसके शासन काल में यूरोपियन यात्री कोलब्रूक्स का आगमन हुआ।
- उन्होंने न्याय संबंधी सुविधा के लिए रतनपुर में नियमित न्यायालय की स्थापना की तथा
अपने शासन काल मे राजनांदगांव तथा खुज्जी नामक दो नई जमीदरियो का निर्माण किया - बिम्बाजी राव भोसला की तीन पत्निया 1. उमाबाई 2. रमाबाई 3. आनंदीबाई थी
- उमाबाई बिम्बाजी राव भोसला के मृत्यु से दुखी होकर 1787 ई में सती हो गई परिणाम स्वरूप रतनपुर में सती चौरा का निर्माण करवाया गया
- रमाबाई पति के वियोग में वन चली गई
- आनंदीबाई बिम्बाजी जी की मृत्यु के पश्चात 1787 से 1801 में सत्ता की बागडोर संभाली सूबेदार महिपत राव के साथ सत्ता के लिए संघर्ष हुवा था राम टेकरी मंदिर में मूर्ति के समक्ष बिम्बाजी की प्रतिमा का निर्माण करवाया था
शासन व्यवस्था
- शासन व्यवस्था मे सुधारा करते हुए नियमित न्यालय की स्थापना की जो की रामटेकरी पहाड़ी में रामपंचायत नामक मंदिर बनवाया और अपनी प्रतिमा स्थापित किया।
- रायपुर रतनपुर का एकीकरण किया।
- राजनांदगॉव और खज्जी नामक जमीदारियों का गठन किया।
- दशहरा पर्व पर स्वर्णपत्र (सोनपत्ती ) देने की प्रचलन लाया।
- रायपुर दूधाधारी मठ का जीर्णोद्धार किया।
- परगना पद्धति का स्वप्न दृष्टया।
- 1787 में इसकी मृत्यु के पश्चात् उनकी पत्नी उमा सती हो गयी जिसका प्रमाण रतनपुर में सती चौरा के रूप में है।
- बिम्बाजी ने यहां मराठी भाषा, मोड़ी लिपि और उर्दू भाषा को प्रचलित कराया
बिम्बाजी राव भोसला शासन व्यवस्था मे कमियां
- सैन्य गुणों का अभाव रहा।
- राज्य विस्तार न करना।
- रानियों के बिच मतभेद। (तीन रानियां थी – उमा (सती) , रमा (जोगन ) , आनंदी – सत्ता सुख )
चिमणाजी भोंसले
- बिम्बाजी के मृत्य के पश्चात उनके भतीजे चिमणाजी ने सत्ता संभाली किन्तु 1788 ई को उनका रहस्यमई तरिके से मृत्यु हो गई
व्यंकोजी भोसले (1787 – 1811 )
- बिम्बाजी की मृत्य के बाद व्यंकोजी भोसले ने छत्तीसगढ़ में 1787 से 1811 तक राज किया।
- इन्ही के शासन काल के समय यूरोपीय यात्री फारेस्टर छत्तीसगढ़ आया था।
- व्यंकोजी के शासन काल के समय में छत्तीसगढ़ में सूबा शासन की शुरुवात हुआ। यह पद्धति छत्तीसगढ़ में ब्रिटिश नियंत्रण होने तक विद्यमान रही
- व्यंकोजी ने राजधानी रतनपुर में रहकर पूर्व की भांति प्रत्यक्ष शासन करने की अपेक्षा नागपुर में रहकर शासन संचालन करने का निश्चय किया
- इन्हे धुरंधर की उपधि दी गयी थी। इनका शासन काल उतना अच्छा नहीं रहा।
- इसके काल में छत्तीसगढ़ की आर्थिक,सामाजिक और राजनैतिक तीनो क्षेत्र में दुर्दशा थी।
- छत्तीसगढ़ में सूबा शासन के संस्थापक व्यंकोजी भोसला की 1811 में बनारस में मृत्यु हो गई
अप्पा साहब (1816 – 1818 ई.)
- व्यंकोजी भोसला की मृत्यु के पश्चात अप्पा साहब छत्तीसगढ़ के नए शासक नियुक्त किये गए |
- अपनी नियुक्ति के पश्चात अप्पा साहब ने छत्तीसगढ़ के तत्कालिक सूबेदार बीकाजी गोपाल (1809 -1817) से बहुत बड़ी राशि की मांग की , परन्तु जब बीकाजी गोपाल ने देने में असमर्थता प्रकट की तो अप्पा साहब ने उसे पद से हटा दिया |
सूबा शासन – 1787 से 1818 तक
- बिम्बाजी राव भोसला के मृत्यु के पश्चात् उनके भाई मुधोजी के पुत्र चिमनाजी को उत्तरा अधिकारी मनोनीत किया गया। बिम्बा विधवा आनंदी की भी यही इच्छा थी पर माधोजी के जेष्ठ पुत्र राघोजी को यह पसंद नहीं था।
- 1788 में माधोजी के मृत्यु के पश्चात नागपुर की सत्ता राघोजी के हाथ मे आ गयी। सडयंत्र से चिमनाजी की मृत्यु हो गयी। फिर राघोजी द्वितीय के छोटेभाई व्योंकोजी भोसला को रतनपुर का शासन प्राप्त हुआ।
- व्योंकोजी भोसला नागपुर के राजकाज में व्यस्त रहे इन्होने अप्रत्यक्ष रूप से रतनपुर में राज चलाया। और सूबा शासन प्रारम्भ किया।
- सूबा शासन में सूबेदार बनाया गया ये ही पूरी राजस्व और कर वसूली करके मराठा शासन को दिया करता था।
छत्तीसगढ़ में सूबेदारों का क्रम
- महिपत राव दिनकर
- विट्ठल राव दिनकर
- भवानिकालू
- केशव गोविन्द
- बिन्कोजी पिड्ररी
- बिकाजी गोपाल
- सखाराम टाटिया
- यादवराव दिनकर
1. महिपत राव दिनकर
- महीपत राव दिनकर को छत्तीसगढ़ का पहला सूबेदार नियुक्त किया गया था।
- इन्होने 1787 से 1790 तक शासन किया।
- 1790 में ही यूरोपीय यात्री फारेस्टर छत्तीसगढ़ आया था।
- आनंदी बाई से सत्ता के लिए संघर्ष हुवा।
2. विट्ठल राव दिनकर (1790 – 96 )
- विट्ठल राव दिनकर – 1790 से 1796 तक – छत्तीसगढ़ का दूसरा सूबेदार। इसका शासन काल मराठा शासन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है
- इसके समय में यूरोपीय यात्री मि. ब्लंट का 13 मई 1795 ई. को रतनपुर में आगमन हुआ था
- इन्होने पुरे छत्तीसगढ़ में परगना पद्धति लागु किया। परगना एक राजस्व प्रबंधन की पद्धति है। इस पद्धति के तहत छत्तीसगढ़ को 27 परगनो में बाँट दिया था। परगने का प्रमुख कमाविसदार कहलाता था।
- इनकी सहायता के लिए बड़कारो की नियुक्ति की जाती थी। उस समय ग्राम का प्रमुख गोटियाँ हुआ करता था। उसकी सहायता के लिए कोतवाल और पटेल की नियुक्ति की जाती थी।
- इसके शासन काल में यूरोपीय यात्री मिस्टर ब्लंट 13 मई 1795 को छत्तीसगढ़ आया था।
3. भवानी कालू
- भवानी कालू – 1796 से 1797 तक सबसे कम समय के लिए सूबेदार बने।
4. केशव गोविन्द (1797 – 1808)
- केशव गोविन्द – 1797 से 1808 तक सबसे लम्बे समय तक सूबेदार रहे।
- केशव गोविन्द के समय 1799 में यूरोपीय यात्री कोलब्रूक छत्तीसगढ़ आये थे।
- इनके समय छत्तीसगढ़ के आसपास पिंडारियो की गतिविधियों का आरम्भ हुआ एवं सरगुजा व छोटानागपुर के मध्य सीमा विवाद उठा।
- पिंडारी आक्रमणों से रक्षा किया।
- संबलपुर छेत्र को जित कर मराठा छेत्र का विस्तार किया।
5. बिन्कोजी पिड्ररी
6 . बीकाजी गोपाल
- बीकाजी गोपाल पांचवे सूबेदार थे 1809 से 1816 तक बीकाजी सूबेदार रहे थे।
- इनके समय में पिंडारियों ने छत्तीसगढ़ में बड़ा उपद्रव किया।
- इसी समय व्यंकोजी भोंसले की मृत्यु हुई और उनके स्थान पर अप्पाजी को छत्तीसगढ़ का वायसराय बनाया गया।
- इसके अतिरिक्त रघुजी भोंसले (व्दितीय) की मृत्यु के बाद अंग्रेजो और मराठो के बीच संधि हुई.
- व्यंकोजी के मृत्यु के बाद अप्पासाहब छत्तीगसढ़ के वायसराय बन गये। वे लोभी एवं स्वार्थी थे। उन्होने सूबेदारों से अत्याधिक धन की मांग करना प्रारंभ कर दिया. जो सूबेदार धन नहीं दे पाते थे उन्हें वे हटा देते थे।
7 . सखाराम हरि एवं सीताराम टांटिया
- सखाराम हरि का किसानो द्वारा गोली कांड में इनकी हत्या हो गयी।
- यह 7 वां सूबेदार था, और केवल 3 माह के लिए रहा।
- सखाराम हरि की मृत्यु के बाद सीताराम टांटिया सूबेदार था। इसका शासन 8 माह के लिए था।
8 . यादवराव दिवाकर
- यादवराव दिवाकर (1817 – 1818) – यह अंतिम सूबेदार था।
- इसके बाद सन् 1818 में छत्तीगसढ़ में ब्रिटिश शासन का प्रारम्भ हो गया, और सूबा पध्दति समाप्त हो गई।
सूबा प्रथा की कमियां
- प्रतिभा और कार्यकुशलता के अनुसार नियुक्ति न होकर ठेकेदारी प्रथानुसार नियुक्ति जनहित की उपेक्षा।
- सूबा प्रथा शोषण की पर्याय बन गई थी।
- आय – व्यय के आंकड़ो की जाँच नही होती थी।
सूबा प्रथा की समाज व्यवस्था
- बिम्बाजी भोंसले की मृत्यु के बाद व्यंकोजी राजा बने तो वे छत्तीसगढ़ के शासन को सूबेदार के माध्यम से चलाने लगे. इसी तरह छत्तीसगढ़ में सूबेदार की परम्परा शुरु हुई. इसे सूबा-सरकार भी कहत हैं. रतनपुर सूबेदार का मुख्यालय था और पूरे क्षेत्र का शासन यहीं से संचालित होता था। यह प्रणाली सन् 1787 से 1818 ई. तक चलती रही। यूरोपीय यात्री कैप्टन ब्लंट 1795 में रतनपुर और रायपुर में आये थे। उनका कहना था कि रतनपुर एक बिखरता हुआ गाँव प्रतीत हुआ जहाँ लगभग एक हज़ार झोंपड़ियाँ थी। इससे लगता है कि रतनपुर के विकास की ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था. रायपुर के बारे में वे लिखते हैं कि रायपुर एक बड़ा शहर प्रतीत हुआ जहाँ लगभग तीन हज़ार मकान थे।
कर प्रणाली और अर्थ व्यवस्था
- छत्तीसगढ़ में सुबा-सरकार स्थापित कर मराठा शासक उसके माध्यम से धन वसूल कर नागपुर भेजा करते थे। सुबा-सरकार छत्तीसगढ़ के हित के लिए नहीं थी। मराठा शासक किसानों को सरकार पर आश्रित रखते थे – पैसों के स्थान पर कर के रुप में किसानों से अनाज लिया जाता था। अनाज की बिक्री की कोई उचित व्यवस्था नहीं थी। छत्तीसगढ़ का अनाज नागपुर भेजा जाता था। यातायात की कठिनाई के कारण बहुत ज्यादा खर्च होता था परन्तु किसान जब अपने गाँव में अनाज बेचते थे तो उन्हें उचित मूल्य नहीं मिलता था।
- व्यंकोजी भोंसला के बाद रघुजी व्दितीय अप्पा साहब नागपुर के राजा बने. उनकी मूल प्रवृत्ति सैनिक की थी. वे हमेशा युध्दों में फँसे रहते थे। जनता के बारे में सोचने वक्त चाहिये उनके पास नहीं था।
- छत्तीसगढ़ के ज्यादातर लोगों की जीविका का आधार कृषि था. प्रमुख उपज – चावल, गेहूँ, चना, कोदो, दाल थी। अनाज की बिक्री की कोई सही व्यवस्था न होने के कारण किसानों को बहुत कष्ट सहना पड़ते थे। मजबूरी के कारण किसानों को अनाज एक जगह से दूसरी जगह ले जाना पड़ता था। अनेक कृषक जल्दी ही एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान को चले जाते थे। इस कारण कृषि भूमि का समुचित विकास नहीं हो सका। साहुकारों से ॠण लेने के लिए किसान को अपनी जायदाद गिरवी रखनी पड़ती थी और कई बार उनकी ज़मीन छिन जाती थी।
सत्ता संघर्ष – 1811 से 818 तक
- रघुजी द्वितीय के मृत्यु के पश्चात् अप्पाराव राजा बनाना चाहते थे। वयोकोजी का पुत्र रघुजी तृतीय छोटे थे। जिसके कारण अप्पा राव को राजा बनाया गया। अप्पा राव को ब्रिटिश ने अपना रीजेंट न्युक्त किया था। इस समय दरबार में ब्रिटिश प्रतिनिधि केरूप में मि.जेनकिन्स उपस्थित थे।
- अप्पा राव और ब्रिटिश के बिच एक संधि हुआ। जिसके लिए अप्पा राव को हर साल 7.11 लाख देने का निर्णय हुआ।
- इस संधि संपन्न कराने वाले नगोपंत और नारायण पंडित को ब्रिटिश शासन द्वारा पुरस्कार के रूप में 25000 और 15000 रुपये पेंशन के रूप में प्रदान किय गया।
- प्रिंसेप लिखतेहै “पारम्परिक कूट और ईर्ष्या की भावना से ग्रस्त मराठों को ब्रिटिश का सामना करना संभव नहीं था “
नोट – सीताबर्डी युद्ध 1818 में मराठा अप्पा राव और अंग्रेजों के बिच हुआ जिसमे अप्पाराव ने आत्म समर्पण कर दिया और शासन ब्रिटिश के नियंत्रण में आ गया।
ब्रिटिश कालीन मराठा शासन – 1818 से 1830 तक
- सन् 1817 में तृतीय आंग्ल – मराठा यूध्द के दौरान, सीताबर्डी के युध्द में मराठे पराजित हो गए. सन् 1818 में नागपुर की संधि हुई जिससे छत्तीसगढ़ में अंग्रेजो का अप्रत्यक्ष शासन स्थापित हो गया. अब मराठे अंग्रेजो के अधीन शासन करने लगे. अप्पा साहब के पतन के पश्चात रघुजी तृतीय को नागपुर राज्य का उत्तराधिकारी बनाया गया. परन्तु क्योंकि इस समय रघुजी भोंसले तृतीय काफी छोटे थे, इसलिए अंग्रेजो ने उनकी ओर से एजेंट बनकर शासन किया. नागपुर में प्रथम अंग्रेज रेजिडेंट जेनकिंस को नियुक्त किया गया. इस काल में छत्तीसगढ़ का शासन एक ब्रिटिश अधीक्षक के माध्यम से किया जाता था –
रेज़िडेंट जेनकिंस के समय का प्रशासन
छत्तीसगढ़ के ब्रिटिश अधिकारी :-
- प्रथम ब्रिटिश अधीक्षक कैप्टन एडमंड 1818
- द्वितीय ब्रिटिश अधीक्षक कैप्टन एगेन्यु 1818 से 1825 तक
- तृतीय ब्रिटिश अधीक्षक कैप्टन हंटर – 1825
- चौथा ब्रिटिश अधीक्षक कैप्टन सैंडिस – 1825 से 1828 तक
- पांचवा ब्रिटिश अधीक्षक विल्किन्स -1828
- छठवाँ ब्रिटिश अधीक्षक कैप्टन क्रॉफर्ड 1828 से 1830 तक
1. कैप्टन एडमन 1818
- कैप्टन एडमंड छत्तीसगढ़ के प्रथम ब्रिटिश अधीक्षक रहे।
- कैप्टन एडमंड का शासन केवल कुछ माह का था।
- इन्होने अपना सम्पूर्ण समय शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित करने में लगा दिया।
- इनके समय में अप्पा साहब की प्रेरणा से डोंगरगढ़ के जमींदार ने 1818 में अंग्रेजी शासन के विरुध्द विद्रोह किया था परन्तु उसे दबा दिया गया। इस घटना के कुछ दिन पश्चात ही एडमण्ड की मृत्यु हो गई।
2. कैप्टन एगेन्यु -1818 से 25 तक
- कैप्टन एडमंड के बाद मि. एगेन्यु छत्तीसगढ़ के अधीक्षक बने।
- प्रशासन को भ्रष्टाचार रहित व चुस्त-दुरुस्त बनाने का प्रयास किया. इनके प्रमुख कार्य नीचे दिये गये हैं –
- इन्होने सन् 1818 में रतनपुर से रायपुर राजधानी परिवर्तन किया।
- राजधानी परिवर्तन छत्तीसगढ़ में 27 परगनों को पुर्नगठित कर केवल आठ परगनों में सीमित किया गया. सबसे बड़ा परगना रायपुर परगना, व सबसे छोटा परगना राजरो थापरगनों की देख रेख के लिए 8 कमाविश्दार नियुक्त किये कुछ समय पश्चात् नया परगना बालोद परगना बनाया गया उत्पादन में वृध्दि तथा व्यापार एवं परिवहन आदि के क्षेत्र में भी अनेक सुधार किये।
- अवांछित करो को समाप्त कर दिया जिससे उत्पादन को प्रोत्साहन मिला और कृषक की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ।
- वीरनारायण सिंह के पिता रामराय ने इसी के समय विद्रोह कर दिया। जमींदार गेन सिंह ने भी विद्रोह कर दिया।
- धमधा के गोंड़ राजा के विद्रोह को शांत किया।
- सोनाखान के जमींदारो के द्वारा हड़पी खालसा भूमि को वापस करने के लिए बाध्य किया छत्तीासगढ़ के लिए 3000 घोड़े निर्धारित किये।
- बस्तर एवं जैपुर जमींदारों के मध्य कोटपाड़ परगने सम्बन्धी विवाद सुलझाने में सफलता मिली।
- इन्होने सन् 1818 से 1824 तक छत्तीसगढ़ में सेवा करने के पश्चात अपना त्यागपत्र दे दिया।
3. कैप्टन हंटर – 1825
- तीसरे अधीक्षक कैप्टन हंटर ने कुछ माह तक शासन किया था।
4. कैप्टन सैंडिस – 1825 से 1828 तक
- चौथे अधीक्षक कैप्टन सैंडिस नागपुर घुड़सवार सेना के पहले सैनिक अधिकारी थे।
- एगेन्यु के परामर्श के अनुसार इन्हें छत्तीसगढ़ के सैनिक व असैनिक दोनों अधिकार सौपे गए।
- ताहूतदारी प्रथा बंजर जमीं को कृषि कार्य हेतु उपयोग करना (छत्तीसगढ़ के ताहूतदार के जन्मदाता )
- मराठो के समय ताहूतदार ,सिरपुर और लवन था।
- ग्रिगेरियन कलेण्डर के तहत अंग्रेजी वर्ष लागु किया गया।
- अंग्रेजी भाषा को सरकारी कामकाज का माध्यम बनाया और छत्तीसगढ़ में डाक तार का विकास कार्य भी करवाया।
- सन् 1826 की संधि इनके समय की सबसे प्रमुख घटना थी।
जेनकिंस के बाद 18-04-1827 को बिल्डर नये रेसिडेंट बने।
5. विल्किन्स -1828
6. कैप्टन क्रॉफर्ड 1828 से 1830 तक
- 27-12-1829 को अंग्रेजो और भोंसलों के बीच में एक नवीन संधि हुई जिसक अंतर्गत छत्तीसगढ का शासन पुनः मराठो को दे दिया। सत्ता का यह हस्तान्तरण 06-01-1830 को संपन्न हुआ। और राज्यों में जिलेदार की न्युक्ति की।
- ब्रिटिश अधीक्षक क्राफर्ड ने भोंसले शासक कृष्णराव अप्पा को छत्तीगसढ़ का शासन सौपा।
- इस दौरान 12 वर्षो तक छत्तीसगढ़ ब्रिटिश नियंत्रण में रहा।
छत्तीसगढ़ में पुनः भोसला शासन – 1830 से 1854 तक
रघुजी तृतीय ( 1830 से 1854 )
- सन् 1830 में अंग्रेज़ों के साथ हुई संधि के बाद छत्तीसगढ़ में पुनः भोसला शासन स्थापित हुआ।
- इस समय रघुजी तृतीय का शासन था।
- ब्रिटिश अधीक्षक क्राफर्ड ने भोंसले शासक कृष्णराव अप्पा को छत्तीगसढ़ का शासन सौपा।
- इस समय भारत के गवर्नर जनरल विलियम बैटिंक थे। उनकी नीति भारतीय नरेशो के साथ हस्तक्षेप न करने की थी।
- छत्तीसगढ़ में नियुक्त अधिकारी को जिलेदार कहते थे. कुल 8 जिलेदार नियुक्त हुए थे।
- प्रथम जिलेदार कृष्णा राव अप्पा थे।
छत्तीसगढ़ में नियुक्त जिलेदार
छत्तीसगढ़ में 1830 से 1854 तक की अवधि में कुल 8 जिलेदार बनाया गया।
- 1 कृष्णा राव
- 2 अमृतराव
- 3 सदरुद्दीन
- 4 दुर्गा प्रसाद
- 5 इंटुकराव
- 6 सखाराम बापू
- 7 गोविंदराव
- 8 गोपाल राव
पहले जिलेदार कृष्णा राव अप्पा शांत प्रकृति के व्यक्ति थे। छत्तीसगढ़ के जिलेदार बनने से पूर्व वे नागपुर में सदर फड़नवीस के पद पर थे। वे राजस्व सम्बन्धी मामलो में योग्य सिध्द नही हुऐ। रायपुर जिलेदारो का मुख्यालय बना रहा. जिलेदार शासन विषयक जानकारी सीधे राजा को भेजते थे. कमाविसदार मजदूरो से बेगार लेते थे। ग्राम पटेलो की संख्या भी अधिक थी। पहले वर्ष में राजस्व कम एकत्रित हुआ, एवं शासन आर्थिक कठिनाइयों के भंवर में फंसता चला गया।
छत्तीसगढ़ में मराठा शासन का अंत
- इन्ही जिलेदार के साथ मिलकर रघुजी तृतीय ने सन 1830 से 1853 तक शासन किया।
- 1853 में रघुजी तृतीय की मृत्यु हो गयी। और इसी के साथ मराठा शासन का अंत हो गया।
- इसके बाद डलहौजी ने “गोद प्रथा निषेध” की निति के तहत नागपुर रियासत का ब्रिटिश शासन में विलय कर दिया। इसके साथ ही छत्तीसगढ़ भी ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया।
छत्तीसगढ़ में मराठा शासन में हुए कुछ महत्वपूर्ण सुधार
रघुजी तृतीय के समय छत्तीसगढ़ में हुए कुछ महत्वपूर्ण सुधार
रघुजी तृतीय के समय छत्तीसगढ़ में हुए कुछ महत्वपूर्ण सुधार भी हुए जो उन्होने अंग्रेजो की सहायता से किये –
सती प्रथा का उन्मूलन
- अंग्रेजो ने 4 सितंबर 1829 को 17 वें नियम के व्दारा बंगाल प्रेसिडेंसी में सती प्रथा के उन्मूलन का आदेश प्रसारित कर दिया था। उन्होने नागपुर के राजा से भी ऐसा ही आदेश जारी करने को कहा जो राजा ने सितंबर 1831 में किया।
बस्तर में नरबली प्रथा पर रोक
- इस समय मनिकेश्वरी देवी (दंतेश्वरी देवी) में नरबली प्रथा प्रचलित थी. इस प्रथा के सम्बन्ध में एकमात्र अभिलेख छिंदक नागवंश के राजा मधुरान्तकदेव के ताम्र पत्र से मिलता है जिसपर शकसंवत 987 अंकित है। गवर्नर जनरल लार्ड हार्डिंग के समय इस प्रथा को समाप्त करने के लिए अंग्रेज अधिकारी जॉन कैम्बेल ने नेत्तृत्व किया।
मराठाकालीन छत्तीसगढ़ में भूराजस्व व्यवस्था
- बिंबाजी जी की मृत्यु के बाद छत्तीसगढ़ में भोसला शासन के वाइसराय के रूप में व्योकोंजी ने छत्तीसगढ़ में वाइसराय का पद संभाला परंतु सम्पूर्ण शासन का भार सूबेदारों पर छोड़ दिया।
- खुद नागपुर की राजनीति में उलझे रहे। व्यंकोजी को छत्तीसगढ़ में सूबा शासन का संस्थापक माना जाता है। ये सूबेदार निजी स्वार्थों व धन संचय की भावना से प्रभावित थे। परिणाम स्वरूप छत्तीसगढ़ में आतंक, अराजकता, अनिश्चितता एवं अव्यवस्था की स्थिति बनी रही।
- इस शासन के दौरान छत्तीसगढ़ के अनेक गांव वीरान हो गये लोग कठिनाइयों के शिकार बनते रहे। कृषि की दशा दयनीय हो गई एवं सन् 1818 तक यहां के राजस्व में 3 लाख से अधिक वृध्दि न हो सकी। जबकि सूबाशासन से पूर्व राजस्व की मद लगभग साढ़े छः लाख रूपये था।
- प्रशासनिक अनुभव हीनता के कारण सूबेदारों के दफ्तरों की दशा अत्यंत दोषपूर्ण, अपूर्ण और अव्यवस्थित थी।
- सूबेदार मनमानी ढंग से खर्च करने के लिये स्वतंत्र थे। उनके स्थायित्व का प्रश्न अनिश्चित होने के कारण उनके हृदय में जनहित की भावना नहीं रहती थी। अतः सूबा शासन के अंतर्गत छत्तीसगढ़ में केवल पीड़ा, आतंक और लूटखसोट का ही बोलबाला रहा।
- सत्ता संघर्ष में लीन मराठा शासकों की उपेक्षा का शिकार छत्तीसगढ़ को होना पड़ा।
- सन् 1818 में जब सूबेदारी शासन का अंत नाटकीय ढंग से हुआ तब इस क्षेत्र की जनता ने राहत की सांस ली।
- विट्ठल दिनकर ने राजस्व व्यवस्था में परगना पध्दति की शुरूआत की। छत्तीसगढ़ में परगनों की संख्या 27 थी। संपूर्ण छत्तीसगढ़ का शासन दो भागों में विभाजित किया गया।
- खालसा क्षेत्र
- जमींदारी क्षेत्र
खालसा क्षेत्र
- खालसा पर उन्होने प्रत्यक्ष शासन का अधिकार रखा और जमींदारी क्षेत्र को जमींदारों के स्वतंत्र शासन में रखा।
जमींदारी क्षेत्र
- जमींदार मराठों द्वारा निर्धारित राशि नियमित एवं निश्चित रूप से शासन को अदा करते थे। मराठे लगान वसूली के तरीके भूमि नाप एवं किसानों और गौंटियों के बीच संबंध में कोई नया नियम लागू नहीं किया गया। इनके व्दारा शासन में आने वाले परिवर्तन का मात्र लेखा-जोखा और राजस्व की वसूली को नियमित बनाना था।
गौंटिया
- गौंटियाः छत्तीसगढ़ में यह पद प्राचीन काल से था। यह गांव का मुखिया होता था।
- उसका पद न तो वंशानुगत होता था और न ही उसे बेचा जा सकता था।
- गांव प्रधान होने के कारण वह गांव की सुख-सुविधा का ध्यान रखता था और जनता का आदर प्राप्त करता था।
- लगान निर्धाण एवं उसकी वसूली के लिये जिम्मेदार होता था। किसानों के सलाह से भूमि का आबंटन करता था।
- किसानों को आवास और काश्त की सुविधा प्रदान करता था। समय-समय पर उन्हें बीज, धन व जानवर से मदद भी पहुंचाता था। इन दायित्वों के निर्वाह के लिए उसे गांव में अनेक सुविधायें और रियायतें प्राप्त थी।
- उसे गांव में ‘सेराडोली’ नामक अतिरिक्त भूमि प्राप्त थी। उस भूमि पर गांव के किसान कृषि करते थे, एवं उससे होने वाली आय गांव में आने वाले अधिकारियों एवं यात्रियों के भोजन एवं आवास पर खर्च होता था।
ताहुतदारी
- ताहुतदारी – भूमि व्यवस्था के लिये मराठों ने इस नई व्यवस्था का सूत्रपात किया। इसमें किसी क्षेत्र विशेष की भूमि एक अवधि के लिए ठेके पर दी जाती थी। ठेके की राशि ताहुतदार खजाने में जमा कराते थे। कैप्टेन सेण्डिस के समय तरेंगा और लोरमी में 2 ताहुतदार बनाए।
भू-राजस्वू के अतिरिक्त भी अनेक प्रकार के कर थे –
- टकोली – यह ज़मींदारों व्दारा दी जाने वाली निश्चित राशि थी।
- सायर – यह आयात-निर्यात कर था।
- कलाली – यह आबकारी कर था जो मादक द्रव्यों पर लिया जाता था।
- पंडरी – यह गैर कृषि कार्य करने वालों जैसे बड़ई, लुहार आदि से लिया जाता था और आय का 10 प्रतिशत था।
- सेवई – अनेक छोटे अस्थाई करों का सम्मिलित नाम सेवई था।
- ज़मींदारी टेक्स – आयातित अनाज पर प्रति गाड़ी तीन पायली लिया जाता था।
मराठा शासनकाल की अन्य महत्वपुर्ण बातें
विनिमय
- विनिमय – इस समय कई प्रकार के सिक्के चलते थे – रघुजी का रुपया, अग्नु लाला, रामजी टांटिया, मनभट्ट, शिवराम, जरीपटका, चांदी का रुपया, जबलपुरी रुपया आदि. अलग- अलग प्रकार की मुद्राएं चलने के कारण तकनीकी रूप से मुद्रा प्रणाली दोषपूर्ण थी।
भ्रष्टाचार
- भ्रष्टाचार – अधिकारियों में भ्रष्टाचार व्याप्त था और जिलेदार तक इससे मुक्त नहीं थे। सदरुद्दीन ने एक लाख रुपयों का गबन किया और पकड़े जाने पर भी केवल 60 हज़ार रुपये ही वापस किए। उसे भ्रष्टाचार के कारण बर्खास्त किया गया। उसका उत्तराधिकारी जिलेदार भी भ्रष्टाचार के कारण पदमुक्त किया गया। आम जनता इस भ्रष्टाचार से त्रस्त रहती थी। रघुजी का समय सूबा सरकार से बहुत बेहतर था परन्तु बीच के अंग्रज़ों के समय की तुलना में कमज़ोर था।
छत्तीसगढ़ में मराठों की शासन व्यवस्था
बिंबाजी के समय प्रत्यक्ष भोंसला शासन था। उसके बाद भोसलों ने सूबेदारों के माध्यम से शासन किया। बीच में ब्रिटिश शासन रहा और उसके बाद भोसलों का प्रत्यक्ष शासन लौटने पर ज़िलेदारों के व्दारा शासन किया गया। राज्य का विभाजन कर की दृष्टि से खालसा क्षेत्र और ज़मीन्दारी में किया गया था। खालसा क्षेत्र की व्यवस्था का दायित्व सूबा का होता था और ज़मीन्दारी क्षेत्र में ज़मीन्दार का. इसके एवज़ में ज़मीन्दार एक निर्धारित राशि देता था, जिसे टकोली कहते थे। भोसलों के समय में प्रमुख अधिकारी थे –
- सूबेदार – जो राजा के नाम पर उसके प्रतिनिधि के रूप में शासन करता था।
- कमाविसदार – जो परगना का प्रमुख था।
- फड़नवीस – आय-व्यय का हिसाब रखता था।
- बड़कर – कमाविसदार के अधीन था, तथा फसल आदि की सूचना भेजता था।
- बरारपांडे – गांव का दौरा करके लगान का ब्योरा तैयार करता था।
- पंडरीपांडे – मादक द्रव्यों से होने वाली आमदनी का हिसाब रखता था।
- पोतदार – खजान्ची था।
- माल चपरासी – कमाविसदार के अधीन थे, और क्षेत्र में घूमकर अपराधियों की खबर रखते थे, तथा वसूली का कार्य भी करते थे।
ग्राम स्तर के अधिकारी
ग्राम स्तर के अधिकारी हैहय काल के गोंटिया का पद सामाप्त नहीं किया गया था। यह गांव में भूमि आबंटन और लगान निर्धारण करता था। यह गांव का मजिस्ट्रेट और पुलिस भी था। यह गांव की जनता का विश्वासपात्र था तथा उनके अधिकारों की रक्षा भी करता था।
- पटेल – यह लगान वसूली का काम करते थे और इन्हें प्रति रुपया एक आने का कमीशन मिलता था।
- चौहान – यह गोंटिया के नियंत्रण में गांव की रक्षा करता था।
न्याय व्यवस्था
- न्याय व्यवस्था – न्याय के लिये अदालतें नहीं थीं। गांव में गोंटिया या पटेल न्याय करते थे।
- बड़े प्रकरणों में कमाविसदार या सूबेदार का निर्णय होता था और बिरले प्रकरणों में नागपुर में राजा का निर्णय होता था।
- बिंबाजी के समय राजा के रतनपुर में रहने क कारण न्याय सुलभ था। बाद में जनता को न्याय मिलना कठिन हो गया।
- ब्राह्मण, बैरागी और गोसाई जाति के लिये मृत्युदंड नहीं था।
- महिलाओं को भी मृत्युदंड नहीं दिया जाता था। परंपरागत पंचायतों व्दारा भी न्याय किया जाता था। परन्तु पंचायतों को संबंधित पक्षों को उपस्थित कराने और अपने निर्णयों का पालन कराने के लिये बाध्य करने का अधिकार नहीं था और वे सामाजिक दबाव से ही काम करा सकती थीं।
- पुलिस की कोई व्यवस्था नहीं थी। पूरे राज्य में जासूसी करने और सूचना एकत्र करने के लिये हरकारे थे परंतु यह व्यवस्था प्रभावी नहीं थी।
- मराठों के पास आंतरिक और वाह्य खतरों से निपटने के लिये सेना थी। बिंबाजी के सभी 5000 सैनिक नागपुर से ही आये थे।
शिक्षा
- शिक्षा का प्रबंध अक्सर घर पर ही किया जाता था। कभी-कभी गांव के लोग भी ब्राह्मणों को शिक्षक रख लेते थे और उन्हें वार्षिक भेंट के रूप में अन्न देते थे।
- रतनपुर और रायपुर में राज्य की ओर से शिक्षा की कुछ व्यवस्था की गई थी।
- शिक्षा का माध्यम हिन्दी और मराठी था।
धार्मिक दशा
- धार्मिक दशा – छत्तीसगढ़ के मूल जनजातीय निवासी गांव के बूढ़ा देव की पूजा करते थे। अन्य लोग मुख्य रूप से हिन्दू धर्मावलंबी थे।
- छत्तीसगढ़ में इस समय में कबीरपंथ का प्रसार भी बहुत हुआ था। इसे हिन्दू एवं मुसलमान दोनो ही मानते थे.
- 1820 से 30 के बीच गुरू घासीदास के सतनाम पंथ का प्रसार भी काफी हुआ। इनके अनुयायी बड़ी संख्या में थे।