
भाग 4 क : मूल कर्तव्य
मौलिक कर्तव्य – रूस से लिया गया है (मूल सविधान में मौलिक कर्तव्य नहीं थे।)
भारत के मूल संविधान में केवल मूल अधिकारों को ही शामिल किया गया था जबकि मौलिक कर्तव्य प्रारंभ में संविधान में उल्लेखित नहीं था । ऐसी आशा की जाती थी कि भारत के नागरिक स्वतंत्र भारत में अपने कर्तव्यों की पूर्ति स्वेच्छा से करेंगे किंतु 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा भाग 4 (क) और अनुच्छेद 51 (क) जोड़ा गया, जिसमें दस मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख किया गया ।
मौलिक कर्तव्यों का संविधान में समावेश करने के लिए सरदार स्वर्ण सिंह की अध्यक्षता में समिति का गठन किया गया । ये मूल कर्तव्य मुख्यतः पूर्व सोवियत संघ के संविधान से प्रेरित थे । वर्ष 2002 में 86वें संविधान संशोधन के बाद मूल कर्तव्यों की संख्या 11 हो गयी है ।
जो इस प्रकार हैं:-
भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह:-
- संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे;
- स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे;
- भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे;
- देश की रक्षा करे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे;
- भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म. भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुंद्ध है;
- हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उसका परिरक्षण करे;
- प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे;
- वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे;
- सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे;
- व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊँचाइयों को छू ले;
- यदि माता-पिता या संरक्षक है, 6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा के अवसर प्रदान करे। ((86 संविधान संशोधन, 2002, धारा 51 A अनुभाग).
मौलिक कर्तव्य का अर्थ, परिभाषा (Importance of Fundamental Duties)
- ‘‘यदि प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने अधिकार का ही ध्यान रखे एवं दूसरों के प्रति कर्त्तव्यों का पालन न करे तो शीध्र ही किसी के लिए भी अधिकार नहीं रहेंगे।’’
- करने योग्य कार्य ‘कर्त्तवय’ कहलाते है किसी भी समाज का मूल्यांकन करते हुए ध्यान केवल अधिकारों पर ही नहीं दिया जाता है वरन् यह भी देखा जाता है कि नागरिक अपने कर्त्तव्यों का पालन करते है या नहीं।
- 26 जनवरी 1950 में लागू किये गये भारतीय संविधान में नागरिकों के केवल अधिकारों का ही उल्लेख किया था मूल कत्र्तव्यों का नहीं। संविधान के 42वें संशोधन के द्वारा भाग 4 में धारा 51 । के अंतर्गत 11 मौलिक कत्र्तव्यों का उल्लेख किया गया है। सन् 2002 में धारा 51 । अनुभाग द्वारा एक और कत्र्तव्य इसमें जोड़ दिया गया है।
मौलिक कर्त्तव्यों का महत्व Importance of Fundamental Duties
अधिकारों और कत्र्तव्यों का घनिष्ठ संबंध सदैव से रहा है। अधिकार और कर्त्तव्य एक ही सिक्के के ही पहलू हैं। एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन हो जाता है। कर्त्तव्यों के बिना अधिकारों की मांग करना नीतिसंगत और न्यायोचित नहीं है। वाइल्ड के अनुसार – ‘‘केवल कर्त्तव्यों के संसार में ही अधिकारों की प्रतिष्ठा है।’’ संविधान के 42वें संशोधन द्वारा नागरिकों के लिए कत्र्तव्यों का समावेश करके हमारे संविधान की एक बहुत बड़ी कमी को पूरा किया गया है। मौलिक कत्र्तव्यों को आंका जा सकता है-
- समंप्रभुत्ता तथा अखण्डता की रक्षा – मौलिक कर्तव्यों द्वारा नागरिकों को यह निर्देश दिया गया है कि वे देश की सम्प्रभुता तथा अखण्डता की रक्षा करें। यदि सभी नागरिक निष्ठा एवं र्इमानदारी से अपने इस कर्तव्य का पालन करने लग जायें तो भारत की सम्प्रभुता और अखण्डता चिरस्थायी बनी रहेगी।
- देश की प्रगति में सहायक – मौलिक कर्तव्यों द्वारा नागरिकों को आहन किया गया है कि वे संकट के समय देश की सुरक्षा हेतु तन-मन धन से अपने योगदान दें।
- देश की प्रगति में सहायक – नागरिकों द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाये जाने से देश प्रगति की दिशा में आगे बढ़ेगा और विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में आ जायेगा।
- प्राकृतिक तथा सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा – भारत में प्राकृतिक तथा सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करने में लोग कोेई संकोच नहीं करते। मौलिक कर्तव्यों में दिये गये निर्देश के पालन से प्राकृतिक तथा सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा होगी। प्रदूषण दूर होगा, जिससे स्वास्थ्य-रक्षा होगी, साथ ही देश की प्रगति होगी।
- लोकतन्त्र को सफल बनाने में सहायक – भारत द्वारा अपनायी गयी लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था तब तक सफल नहीं हो सकती, जब तक नागरिक लोकतांत्रिक संस्थाओं का आदर न करें। मौलिक कत्र्तव्यों को संविधान में स्थान दिये जाने से लोग इन संस्थाओं का आदर करेंगे, जिससे लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था सुदृढ़ होगी।
- संस्कृति की रक्षा और संरक्षण – भारत में समन्वित संस्कृति होने के कारण कश्मीर से कन्याकुमारी तक विभिन्न प्रकार की गौरवशाली परम्पराएं है। मौलिक कर्तव्यों के पालन से ही विभिन्न प्रकार की इन परम्पराओं में समन्वय स्थापित कर सकेंगे और उनका संरक्षण कर सकेंगे। इससे भारत की सांस्कृतिक एकता सुदृढ़ होगी।
- विश्व-बन्धुत्व की भावना का विकास – मौलिक कर्तव्यों में भारतीय नागरिकों को सद्भावना तथा भार्इचारे की भावना बनाये रखने का निर्देश दिया गया है, साथ ही हिंसा से दूर रहने का परामर्श दिया गया है। ये निर्देश और परामर्श मानवीय दृष्टिकोण अपनाने और विश्व-बंधुत्व की भावना को विकसित करने में सहायक सिद्ध होंगे।
- स्त्रियों का सम्मान – मौलिक कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करने से समाज में स्त्रियों को सम्मान प्राप्त होगा, जिससे उनकी गरिमा में वृद्धि होगी और लिंग संबंधी भेदभाव समाप्त होकर समानता स्थापित होगी।
मौलिक कर्तव्यों की आलोचना (Criticism of Fundamental Duties):
- संविधान के भाग 4(क) में वर्णित मूल कर्तव्यों की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती है- कर्तव्यों की सूची अधूरी है क्योंकि इनमें मतदान, कर अदायगी, परिवार नियोजन, आदि जैसे कर्तव्य समाहित नहीं हैं । स्वर्ण सिंह समिति ने कर अदायगी के कर्तव्य की सिफारिश की थी ।
- कुछ कर्तव्य अस्पष्ट, बहुअर्थी एवं सामान्य जन के लिए समझने में कठिन हैं, जैसे-उच्च आदर्श, मिश्रित संस्कृति, वैज्ञानिकता, आदि । अपनी गैर-न्यायोचित छवि के चलते उन्हें आलोचकों द्वारा नैतिक आदेश की संज्ञा दी गई । प्रसंगवश स्वर्ण सिंह समिति ने मूल कर्तव्यों के उल्लंघन पर अर्थदंड व सजा की सिफारिश की थी।
- आलोचकों का यह भी कहना है कि कर्तव्यों को भाग 4 का में समाविष्ट करके इसके मूल्य व महत्व को कम कर दिया गया है । इसे भाग 3 के बाद जोड़ा जाना चाहिए था ताकि ये मूल अधिकारों से संबद्ध रहते।
मौलिक कर्तव्यों की प्रकृति
- हमारे संविधान में मौलिक कर्तव्य केवल आदर्शों की ओर संकेत करत हैं। वे वास्तविक नहीं जान पड़ते। इन कर्तव्यों की विशेष आलोचना इस प्रकार से है कि वे न्याययोग्य नहीं है। जिनका परिणाम यह निकलता है कि ये कर्तव्य संविधान पर बोझ बनकर रह गए हैं। कुछ कर्तव्य तो साधारण मनुष्य की समझ से बाहर है जैसे गौरवशाली परंपरा और सामाजिक संस्कृति का अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता है। मानववाद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कोई परिभाषाएं हो सकती हैं। राष्ट्रीय संघर्ष को प्रोत्साहन देने वाले आदर्श से संबंधित कर्तव्य अस्पष्ट है।